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अनुमति जरूरी है

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सोमवार, 30 जून 2014

ओ मेरे !.............11

तुम भटकी हुई दिशा की वो गणना हो जिसके उत्तर ना भूत में हैं और ना ही भविष्य में फिर वर्तमान से मगज़मारी क्यों .......कहा था ना तुमने एक दिन .........और उसी दिन से प्रश्नचिन्ह बनी वक्त की सलीब पर लटकी खडी हूँ मैं ......यूँ  इश्क की बदमिज़ाज़ी को लिबास बना पहना है मैने .........अब चाहे जितनी आग उगलो जलते हुये भी हँस रही हूँ मैं ............महबूब के तोहफ़े यूँ भी सहेजे जाते हैं ...........जानाँ !!!

खुमारी दिन चढ़ने पर ही ज्यादा अंगड़ाईयाँ लिया करती है ..........और मेरी मोहब्बत में कभी शाम होती ही नहीं ...........बस खुमारियों की पाजेबें छनछनाती रहती हैं और मैं उनकी धुन पर नाचती उमगती रहती हूँ एक तिलिस्मी दुनिया का तिलिस्म बनकर ..........क्या जी सकते हो तुम भी मेरी तरह ...........ओ मेरे !

बुधवार, 25 जून 2014

सफ़र के पडाव

डॉ हरीश अरोडा जी के संपादन में दो वर्षों के इंतज़ार के बाद ' पत्रकारिता का बदलता स्वरूप और न्यू मीडिया ' पुस्तक आ रही है जिसमें मेरा भी आलेख सम्मिलित है ये है बुक का कवर 





शोध दिशा' के 'फेसबुक कविता अंक' में प्रकाशित मेरी दो कवितायें

आदरणीय गिरिराज शरण अग्रवाल जी एवं लालित्य ललित जी हार्दिक आभार
 





 अनंग प्रकाशन से प्रकाशित  " समकालीन विमर्श --- मुद्दे और बहस " पुस्तक  जो हिमाचल यूनिवर्सिटी में कार्यरत रवि कुमार गौंड के सम्पादन में प्रकाशित हुयी है जिसमें स्त्री विमर्श पर मेरा द्वारा लिखित एक आलेख भी सम्मिलित है






गुरुवार, 19 जून 2014

मुझे मेरे अक्स ने आवाज़ दी………

हाथ उठाये यूँ
मुझे मेरे अक्स ने आवाज़ दी
सैंकड़ों कहानियां बन गयीं
दर्जनों अक्स चस्पां हो गए
कुछ गर्म रेतीले अहसासों के
बेजुबान लफ्ज़ रूप बदल गए
कहीं एक डाल से उड़ता
दूजी ड़ाल पर बैठता मेरा मन पंछी
उड़ान भरने को आतुर दिखता
तो कहीं ख़ामोशी के गहरे
अंधे कुएं में दुबक जाता
कहीं कोई चाहत की उमंग
ऊंगली पकडे ख्वाब को टहलाती
कहीं कोई उम्मीद की सब्ज़परी
अपनी बाहों के घेरे में
स्वप्नों के घर आबाद करती
कहीं गडमड होते ख्वाबों के दरख़्त
कहीं चेतना का शून्य में समाहित होना
एक अजब से निराकार में साकार का
आभास कराता विद्युतीय वातावरण
का उपस्थित होना
ना जाने कितनी अजन्मी कहानियों का जन्म हुआ
ना जाने कितने वजूदों को दफ़न किया
ना जाने कितने कल्पनाओं के पुलों पर
उड़ानों को स्थगित किया
फिर अक्स में ही सारा दृश्य सिमट गया
और रह गया
खाली हाथों को उठाये यूँ अकेला अस्तित्व मेरा
शून्य का कितना ही विस्तार करो
सिमट कर शून्य ही बचता है

और फिर अक्स की दुरुहता तो अक्स में ही सिमटी होती है
………

शनिवार, 14 जून 2014

" घट का छलछलाते रहना जरूरी है "


दर्द उदास है 
कि जुटा है आज 
इक कराह की तलाश में 

ये हिय की पीरों पर 
सावन के हिंडोले 
कब पडे हैं भला 
जो पींग भर पाती इक आह 

मोहब्बत के चश्मेशाही में तो 
बस दिलजलों के मेले लगा करते हैं जानाँ
हर खामोश चोट ही उनका समन्दर हुआ करती है 
और खारापन ………उनका जीवन 

तभी तो
उदासी की नेमत हर किसी को अता भी तो नहीं फ़रमाता खुदा 
इसलिये 
इश्क के चश्मों में नमी ज़रा कम ही हुआ करती है 
और मोहब्बत बेइंतेहा 
तभी तो 
हर चोट हर वार 
मोहब्बत की पुख्तगी का सबूत हुआ करता है 
और प्रेमियों के लिए सुधामृत 

ओह ! तभी दर्ज होता है   
प्रेम की पाठशाला में 
इश्क के कायदे का पहला और अन्तिम वाक्य 
" घट का छलछलाते रहना जरूरी है "

शुक्रवार, 13 जून 2014

तुम्हारा स्वागत है ……अन्तिम भाग



अभी जमीन उर्वर नहीं है 
महज ढकोसलों और दिखावों की भेंट चढ़ी है 
दो शब्द कह देना भर नहीं होता नारी विमर्श 
आन्दोलन  करना भर नहीं होता नारी मुक्ति 
नारी की मुक्ति के लिए नारी को  करना होता है 
जड़वादी ,   रूढ़िवादी सोच से खुद को मुक्त 

मगर अभी  जमीन उर्वर नहीं है 
अभी नहीं डाली गयी है इसमें 
उचित मात्रा में खाद ,बीज और पानी 
फिर कैसे बहे बदलाव की बयार 
कैसे पाए नारी अपना सम्मान 

अभी संभव नहीं हवाओं के रुख का बदलना 
जानती हो क्यों ………… क्योंकि 
यहाँ है जंगलराज ……… न कोई डर है ना कानून 
चोर के हाथ में ही है तिजोरी की चाबी 
ऐसे में किस किस से और कब तक खुद को बचाओगी
कैसे इस माहौल में जी पाओगी 
ये सब सोच लेना तब आना इस दुनिया में ………… तुम्हारा स्वागत है 

और सुनो सबसे बडा सच 
नहीं हुयी मैं इतनी सक्षम 
जो बचा सकूँ तुम्हें 
हर विकृत सोच और निगाह से 
नहीं आयी मुझमें अभी वो योग्यता 
नहीं है इतना साहस जो बदल सकूँ 
इतिहास के पन्नों पर लिखी इबारतें 
पितृसत्तात्मक समाज के चेहरे से 

सिर्फ़ कहानियों , कविताओं ,आलेखों या मंच पर 
बोलना भर सीखा है मैनें 
मगर नहीं बदली है इक सभ्यता अभी मुझमें ही 
फिर कैसे तुम्हें आने को करूँ प्रोत्साहित 
कैसे करूँ तुम्हारा खुले दिल से स्वागत 

जब अब तक 
खुद को ही नहीं दे सकी तसल्लियों के शिखर 
जब अब तक 
खुद को नहीं कर सकी अपनी निगाह में स्थापित 
बन के रही हूँ अब तक सिर्फ़ और सिर्फ़ 
पुरुषवादी सोच और उसके हाथ का महज एक खिलौना भर 
फिर भी यदि तुम समझती हो 
तुम बदल सकती हो इतिहास के घिनौने अक्षर 
मगर मुझसे कोई उम्मीद की किरण ना रखना 
गर कर सको ऐसा तब आना इस दुनिया में ……तुम्हारा स्वागत है 


ये वो तस्वीर है  
वो कडवा सच है 
आज की दुनिया का 
जिसमें आने को तुम आतुर हो 
और कहती हो 
" जीना है मुझे " 



मंगलवार, 10 जून 2014

आखिर क्या दोष था उन नौनिहालों का ?

अन्दर ही अन्दर सुलग रहे हैं 
कुछ कर न पाने की बेबसी डँस रही है 
या खुदा तेरी ये विनाशलीला देख 
तुझी पर इल्ज़ाम रखने को मचल रहे हैं 


रविवार रात से दिल बहुत उदास हो गया जब से न्यूज सुनी कि 24 बच्चे व्यास में बह गये और कल से न नींद न चैन सुबह से न्यूज ही सुन रही थी और सोच सोच परेशान हो रही थी कि कैसी कुदरत की लीला है या कहूँ कैसा प्रशासन का तंत्र है कि एक पल में 24 घरों के चिराग बुझा दिए सिर्फ़ एक लापरवाही से , अब कौन जिम्मेदार होगा इसका ? और यदि अब जिम्मेदारी उठा भी लें तो क्या लौट आयेंगे उनके घर के चिराग ? यदि समय रहते सूचित किया गया होता तो ये भयानक हादसा टल सकता था , जाने क्या बीत रही होगी उनके परिवारों पर , कैसे एक एक पल भारी हो रहा होगा सोच सोच के ही हाल बेहाल हुआ जा रहा है तो उनका क्या हो रहा होगा ये तो हम समझ भी नहीं सकते ……20 साल के बी टैक के बच्चे ……उफ़्फ़ ! कल से यही दुआ कर रही हूँ कि हे ईश्वर ! कैसे भी करके वो बच्चे बच जायें  क्योंकि एक वो ही कोई चमत्कार कर सकता है और जो बच्चे बह गये हैं उन बच्चों को बचा सकता है जबकि उम्मीद कम होती जा रही है मगर उसी पर विश्वास है शायद कुछ बच जायें ……


 आखिर क्या दोष था उन नौनिहालों का ? क्या पढाई के स्ट्रैस से मुक्ति पाने को थोडा सा मनोरंजन करना गुनाह है ? आखिर क्यों हुआ ये सब ? कौन जिम्मेदार है ? अब ये प्रश्न बेमानी लगते हैं ………बस अब तो पीछे छुटे लोगों के गम बडे लगते हैं कैसे ज़िन्दगी को गुजारेंगे ? हो सकता है किसी का सिर्फ़ एक ही बच्चा हो , सोच कर ही दिल काँप उठता है , कैसे पहाड सी ज़िन्दगी गुजारेंगे वो? और दूसरी तरफ़ किसी को फ़र्क नहीं पड रहा क्या सरकार क्या प्रशासन , संसद मौन है क्योंकि उसका अपना कोई नहीं गया , दो मिनट का शोक तक नहीं रखा गया , इतनी संवेदनहीनता दर्शाती है अब नहीं बचे संस्कार , नहीं रहा कोई सरोकार ………जाने किसके सहारे जी रही है जनता ? क्या सिर्फ़ विकास का मंत्र ही काफ़ी है ? क्या ऐसे विकास का कोई औचित्य है जहाँ जनता की ही परवाह न हो वो मरती है तो मरे हम विकास के नाम की माला जपेंगे बस और इसी नाम पर वोट बैंक भरेंगे ……आखिर कहाँ खो गयी है मानवता और इंसानियत ……सोच में हूँ !!!

शुक्रवार, 6 जून 2014

तुम्हारा स्वागत है ……भाग 2



तुम कहती हो 
दुनिया  बहुत सुन्दर है 
देखना चाहती हो तुम 
जीना चाहती हो तुम 
हाँ सुन्दर है मगर तभी तक 
जब तक तुम " हाँ " की दहलीज पर बैठी हो 
जिस दिन " ना " कहना सीख लिया 
पुरुष का अहम् आहत हो जाएगा 
और तुम्हारा जीना दुश्वार 
तुम कहोगी …………क्यों डरा रही हूँ 
क्या सारी दुनिया में सारी स्त्रियों पर 
होता है ऐसा अत्याचार 
क्या स्त्री को कोई सुख कभी नहीं मिलता 
क्या स्त्री का अपना कोई वजूद नहीं होता 
क्या हर स्त्री इन्ही गलियारों से गुजरती है 
तो सुनो ……………एक कडवा सत्य 
हाँ ……………एक हद तक ये सच है 
कभी न कभी , किसी न किसी रूप में 
होता है उसका बलात्कार 
कभी  इच्छाओं का तो कभी उसकी चाहतों का 
तो कभी उसकी अस्मिता का 
होता है उस पर अत्याचार 
यूं ही नहीं कुछ स्त्रियों ने आकाश पर परचम लहराया है 
बेशक उनका कुछ दबंगपना  काम आया है 
मगर सोचना ज़रा ……ऐसी  कितनी होंगी 
जिनके हाथों में कुदालें होंगी 
जिन्होंने खोदा होगा धरती का सीना 
सिर्फ मुट्ठी भर …………… एक सब्जबाग है ये 
नारी मुक्ति या नारी विमर्श 
फिर चाहे विज्ञापन की मल्लिका बनो 
या ऑफिस में  काम  करने वाली सहकर्मी 
या कोई जानी मानी हस्ती 
सबके लिए महज  सिर्फ देह भर हो तुम 
फिर चाहे उसका मानसिक शोषण हो या शारीरिक 
दोहन के लिए गर तैयार हो 
प्रोडक्ट के रूप में प्रयोग होने को गर तैयार हो 
अपनी सोच को गिरवीं रखने को गर तैयार हो 
तो आना इस दुनिया में ………… तुम्हारा स्वागत है 

क्रमश : …………

बुधवार, 4 जून 2014

तुम्हारा स्वागत है ……भाग 1


तुम   कहती  हो  
" जीना है मुझे "
मैं कहती हूँ ………… क्यों ?
आखिर क्यों आना चाहती हो दुनिया में ?
 क्या मिलेगा तुम्हे जीकर ?
बचपन से ही बेटी होने के दंश  को सहोगी 
बड़े होकर किसी की निगाहों में चढोगी
तो कहीं तेज़ाब की आग में खद्कोगी
तो कहीं बलात्कार की  त्रासदी सहोगी 
फिर चाहे वो बलात्कार 
घर में हो या बाहर 
पति द्वारा हो या रिश्तेदार द्वारा या अनजान द्वारा 
क्या फर्क पड़ता है या पड़ेगा 
क्योंकि 
शिकार तो तुम हमेशा ही रहोगी 
जरूरी नहीं की निर्वस्त्र करके ही बलात्कार किया जाए 
कभी कभी  जब निगाहें भेदती हैं कोमल अंगों को 
बलात्कृत हो जाती है नारी अस्मिता 
जब कपड़ों के अन्दर का दृश्य भी 
हो जाता है दृश्यमान देखने वाले की कुत्सित निगाह में 
हो जाती है एक लड़की शर्मसार 
इतना ही नहीं कोई फर्क नहीं पड़ता 
तुम बच्ची हो , युवा या प्रौढ़ 
तुम बस एक देह हो सिर्फ देह 
जिसके नहीं होते हाथ, पैर या मन 
होती है तो सिर्फ शल्य चिकित्सा की गयी देह के कामुक अंग 
उनसे इतर तुम कुछ नहीं हो 
क्या है ऐसा जो तुम्हें कुलबुला रहा है 
बाहर आने को प्रेरित  कर रहा है 
क्या मिलेगा तुम्हें यहाँ आकर 
देखो तो ………….
 कितनी निरीह पशु सी 
शिकार हो चुकी हैं न्याय की आस में 
मगर यहाँ न्याय
एक बेबस विधवा के जीवन की अँधेरी गली सा शापित खड़ा है 
कहीं नाबलिगता की आड़ में तो कहीं संशोधनों के जाल में 
मगर स्वयं निर्णय लेने में कितना सक्षम है 
ये आंकड़े बताते हैं 
कि न्याय की आस में वक्त करवट बदलता है 
मगर न्याय का त्रिशूल तो सिर्फ पीड़ित को ही लगता है 
हो जाती है वो फिर बार- बार बलात्कृत 
कभी क़ानून के रक्षक द्वारा कटघरे में खड़े होकर 
तो कभी किसी रिपोर्टर द्वारा अपनी टी आर पी के लिए कुरेदे जाने पर 
तो कभी गली कूचे में निकलने पर 
कभी निगाह में हेयता तो कभी सहानुभूति देखकर 
तो कभी खुदी  पर दोषारोपण होता देखकर 
अब बताओ तो ज़रा ………… क्या आना चाहोगी इस हाल में 
क्या जी सकोगी विषाक्त वातावरण में 
ले सकोगी आज़ादी की साँस 
गर कर सको ऐसा तो आना इस जहान में ……………तुम्हारा स्वागत है 

क्रमश : …………