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शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

सात दिनों का मेला

ये दुनिया सात दिनों का मेला
आठवां दिन न आया कभी
ख्वाब बरसों के बुनता रहा
पल भी चैन न पाया कभी
क्षण क्षण जीता मरता रहा
पर ख़ुद को न जान पाया कभी
आठवें दिन की आस में
सात दिन भी न जी पाया कभी
प्राणी जीवन सात दिनों का मेला है
कुछ तो यत्न करना होगा
सात दिनों में मरने से पहले
भवसिंधु से भी तरना होगा
जो जीवन भर न कर पाया
वो यत्न अब करना होगा
जैसा उज्जवल भेजा उसने
वैसा उज्जवल बनना होगा
ये दुनिया सात दिनों का मेला
आठवां दिन न आया कभी



कृपया मेरा नया ब्लॉग भी पढ़ें .................
http://ekprayas-vandana.blogspot.com

22 टिप्‍पणियां:

राकेश जैन ने कहा…

jivan ke sach par achha bahv bandha aapne.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"ये दुनिया सात दिनों का मेला
आठवां दिन न आया कभी"

शान्त रस की बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति है।
वैराग्य की ओर जाने की प्रेरणा देती है।
बधाई!

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

"ये दुनिया सात दिनों का मेला
आठवां दिन न आया कभी"

jeevan ki sachchai bayan karti sachchi rachna.

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत बढिया रचना !!

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत सही कहा आपने। बहुत ही उम्दा अभिव्यक्ति । इस बेहतिन रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई ...........

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत सही कहा आपने। बहुत ही उम्दा अभिव्यक्ति । इस बेहतिन रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई.............

Mishra Pankaj ने कहा…

सही बात है जिन्दगी सात दिन का मेला

निर्मला कपिला ने कहा…

प्राणी जीवन सात दिनों का मेला है
कुछ तो यत्न करना होगा
सात दिनों में मरने से पहले
भवसिंधु से भी तरना होगा
जो जीवन भर न कर पाया
वो यत्न अब करना होगा
बहुत सुन्दर कविता है । वैराग्य मन की अभिव्यक्ति है। यही जीवन का सच भी है मगर आदमी को फुरसत कहां भौतिक जीवन से । शुभकामनायें

सुशील छौक्कर ने कहा…

सच्ची बात कह दी आपने।
ये दुनिया सात दिनों का मेला
आठवां दिन न आया कभी
ख्वाब बरसों के बुनता रहा
पल भी चैन न पाया कभी
क्षण क्षण जीता मरता रहा
पर ख़ुद को न जान पाया कभी
आठवें दिन की आस में
सात दिन भी न जी पाया कभी

जीवन की सच्चाई को बहुत ही सुन्दर रुप से कह दिया आपने।

M VERMA ने कहा…

ये दुनिया सात दिनों का मेला
आठवां दिन न आया कभी
बहुत खूबसूरत -- दार्शनिक भाव
बेहतरीन

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

वन्दना जी,

बहुत ही गहरा यथार्थ कहा है आपने इन पंक्तियों में :-

आठवें दिन की आस में
सात दिन भी न जी पाया कभी

काश कि यह सत्य सातवें दिन की आखिरी बेला से पहले समझ आ जाये नही तो जिन्दगी यूँ ही तमाम हो जाती है ना तो आठवां दिन होता है ना आता है।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

लोकेन्द्र विक्रम सिंह ने कहा…

वाह वंदना जी.....
क्या बात कही है.....
क्षण क्षण जीता मरता रहा
पर ख़ुद को न जान पाया कभी
आठवें दिन की आस में
सुन्दर रचना.....

Urmi ने कहा…

बहुत बढ़िया और शानदार रचना लिखा है आपने! इस लाजवाब और बेहतरीन रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

जीवन सात दिन भी अछे से जी सके तो उम्र के सामान है .......... सुन्दर रचना है ......

Kishore Kumar Jain ने कहा…

mela saat dinon ka aur jindagi char dinon ki .koun sach? subhkamnaen.kishorejain

Naveen Tyagi ने कहा…

ye jindagi ke mele duniya me kam na honge
afsos hum na honge

राकेश कुमार ने कहा…

भौतिकता की चकाचौन्ध से आध्यात्मिक मूल्यो की ओर प्रेरित करती आपकी कविता स्वयम मे एक गहरा सन्देश समेटे हुये है,

मानव जीवन की सार्थकता वास्तव मे तभी है जब हम अपने व्यस्ततम क्षणो मे से कुछ पल निकालकर मानव कल्याण के लिये भी कुछ करने का प्रयत्न करे, अन्यथा ऐसा ना हो कि सब कुछ समेटकर जब इस दुनिया से विदा होने का वक्त आये तो हमारे पास अतीत मे, मात्र स्वयम के लिये ही जीये गये वक्त के अलावा पुण्यो का एक छोटा सा पुलिन्दा भी ना हो और फिर शायद उस बेबसी को महसूस करने उसी फूट्पाथ पर कही ईश्वर हमे जन्म ना दे.

शायद कवियित्री का यही मन्तव्य है.

विजयप्रकाश ने कहा…

जैसा उज्जवल भेजा उसने
वैसा उज्जवल बनना होगा
वाह वंदना जी.शुभकामनाऐ

جسوندر سنگھ JASWINDER SINGH ने कहा…

Bahut sundar rachna. Blog Ka naam bhi bahut achha laga.

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत कोमल रचना. बहुत देर से आया, क्षमाप्रार्थी.

vijay kumar sappatti ने कहा…

zindagi ki haqikat ko sahi aur sacche shabdo me aapne darhsaya hai .. ek ek shabd zindagi ke asli roop ko vyakth kar rahe hai .. aapki abhivyakti bahut acchi hai ..

badhai sweekar karen..

Gurinder Singh Kalsi ने कहा…

a good poem.