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शनिवार, 12 दिसंबर 2015

यूँ ही कभी कभी ...

कि
सुलग रही हैं आजकल
खामोशियाँ मेरी
और
जलने के निशान ढूँढ रहे हैं
जिस्म मेरा

जाने क्यूँ
रूह की खराश से
बेदम हुआ सीना मेरा

कि
बंदगी का ये आगाज़ था न अंजाम
फिर भी
गुनहगार है कोई नाखुदा मेरा

सोचती हूँ यूँ ही कभी कभी ...


4 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

जाने क्यूँ
रूह की खराश से
बेदम हुआ सीना मेरा
... बहुत खूब!

Digvijay Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 14 दिसम्बर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

Onkar ने कहा…

बहुत सुन्दर

Malti Mishra ने कहा…

हृदयस्पर्शी रचनी