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बुधवार, 27 जनवरी 2016

चलूँ कि बहुत अँधेरा है

चलूँ कि
बहुत अँधेरा है तेरे शहर में
दरख्तों के घनेरे सायों में
उम्र से लम्बी परछाईं है

तू उस जहान की जोगन है
मैं तन्हाइयों का सौदाई हूँ
आ के गले मिलने की
रीत न हमने दोहराई है


ये सदियों से बिछड़ी रूह की
बस आर्तध्वनि उभर आई है
तेरे मेरे मिलन की उसने
न कोई जगह बनायी है

चलूँ कि
बहुत अँधेरा है तेरे शहर में ...

4 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

सुन्दर और भावपूर्ण रचना ।

Unknown ने कहा…

सुन्दर और भावपूर्ण रचना ।

Anil Sahu ने कहा…

सुंदर रचना.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अर्थपूर्ण रचना ...